
23 सितंबर पावन संकल्प भूमि, वडोदरा ( गुजरात) 108 वर्ष संकल्प दिवस ।
23 सितंबर पावन संकल्प भूमि, वडोदरा ( गुजरात) 108 वर्ष संकल्प दिवस ।
23 सितंबर भारत के इतिहास व बहुजनों के लिए विशेष महत्व है | वर्ष *1917* मैं गुजरात के बडौदा शहर मैं नौकरी करने आये बाबा साहेब अम्बेडकर जी को रहने के लिये मकान नही मिला ।
बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने एक प्रतिभाशाली, होनहार गरीब नौजवान को छात्रवृति देकर कानून व अर्थशास्त्र के अध्ययन करने हेतु लंदन भेज दिया | छात्रवृति के साथ अनुबंध यह था कि विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक बड़ौदा रियासत को अपनी दस वर्ष की सेवाऐं देगा |
अध्ययन कर उच्च शिक्षा हासिल करने के उपरांत 28 वर्षीय वह युवक करार के मुताबिक अपनी सेवाऐं देने हेतु बड़ौदा नरेश के सम्मुख उपस्थित हुआ | बड़ौदा नरेश ने उस युवक को सैनिक सचिव के पद पर तत्काल नियुक्त कर लिया | एक सामान्य सी घटना आग की लपटों की तरह पूरी रियासत में फैल गयी | बस एक ही चर्चा चारों ओर थी कि बड़ौदा नरेश ने एक अछूत व्यक्ति को सैनिक सचिव बना दिया है |
विडम्बना यह थी कि इतने उच्च पद पर आसीन अधिकारी को भी मातहत कर्मचारी दूर से फाईल फेंककर देते | चपरासी पीने के लिए पानी भी नहीं देता| यहां तक की बड़ौदा नरेश के उस आदेश की भी अनदेखी कर दी गयी जिसमें कहा गया था कि इस उच्च अधिकारी के रहने की उचित व्यवस्था की जाए | दिवान उनकी मदद करने से स्पष्ट ही इन्कार कर चुका था | इस उपेक्षा और तिरस्कार के बाद अब उन्हें रहने व खाने की व्यवस्था खुद ही करनी थी | किसी हिंदू लॉज या धर्मशाला में उन्हें जगह नहीं मिली |
आखिरकार बाबा साहेब अम्बेडकर जी एक पारसी धर्मशाला में अपना असली नाम छुपाकर एवं पारसी नाम बताकर दैनिक किराये पर रहने लगे | जाती ने धर्मशाला में भी उनका पीछा नहीं छोड़ा | मनुवादी मानसिकता के लोगों ने जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया व उनका सामान बाहर फेंक दिया | बहुत निवेदन करने के बाद बाबा साहेब को धर्मशाला खाली करने के लिए आठ घंटे की मोहल्लत दी गयी | चूंकि उस समय बड़ौदा नरेश मैसूर जाने की जल्दी में थे, अतः बाबा साहेब को दीवान जी से मिलने की सलाह दी गयी लेकिन दीवान उदासीन बने रहे | विवश होकर बाबा साहेब ने दुखी मन से बड़ौदा नरेश को अपना त्याग-पत्र सौंप दिया और रेल्वे स्टेशन पंहुचकर बम्बई जाने वाली ट्रेन का इंतजार करने लगें | ट्रेन चार-पांच घंटे विलम्ब से चल रही थी | तब पास में ही कमाठी बाग के वट वृक्ष के नीचे एकांत में बैठकर वह अपने साथ हुए अन्याय को याद करके फूट-फूट कर खुब रोये | उनकी आवाज सुनने वाला उस वृक्ष के अलावा कोई नहीं था|
“लाखों-लाख प्रतिभा से योग्य, प्रतिभावान एवं सक्षम होकर भी वह उपेक्षित थे | उनका दोष केवल इतना था कि वह अछूत थे | उन्होने सोचा कि मैं इतना उच्च शिक्षित हूं, विदेश में पढा हूं, तब भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है तो देश के करोड़ों अछूत लोगों के साथ क्या हो रहा होगा ?”
वो तारीख थी *23 सितम्बर 1917* | बाबा साहेब ने सोचा कि मुझे और मेरे समाज को इन्ही जातियों / छुआछूत के कारण अपमानित होना पड़ रहा है। और अब मैं इन जातियों को ही खत्म कर दुंगा और सभी को न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता का अधिकार दिलाऊंगा।
और जब उनके आंसू थमे तो उस समय बाबा साहेब ने एक विराट संकल्प लिया कि—-
*”अब मैं कोई नौकरी नहीं करूंगा तथा अपना पूरा जीवन इस देश से छुआछूत निवारण और समानता कायम़ करने के कार्य करने में लगाऊंगा |”*
यह एक साधारण संकल्प नहीं था बल्कि महान संकल्प था, न तो यह संकल्प साधारण था न ही इसको लेने वाला व्यक्ति खुद साधारण था |
बड़ौदा के कमाठी बाग के उस वट वृक्ष के नीचे असाधारण संकल्प लेने वाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देश का महान सपूत व महान विभूति, महामानव, विश्वरत्न, भारतीय संविधान के निर्माता, युगपुरूष, बाबा साहब डॉ अम्बेडकर जी थे |
बाबा साहब के इस संकल्प से उपजे संघर्ष ने भारत के करोड़ों लोगों के जीवन की दिशा बदल दी | बाबा साहब ने जीवनभर संघर्ष किया व उत्पीड़ित लोगों को जीने का नया रास्ता दिखाया |