संत कबीर जयंती आज भी हमारे समाज को आईना दिखाते हैंऔर मार्गदर्शन भी देते हैं।

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संत कबीर जयंती 

आज भी हमारे समाज को आईना दिखाते हैंऔर मार्गदर्शन भी देते हैं।

संत कबीर साहेब 15वीं शताब्दी के एक ऐसे महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिनकी वाणी आज भी जन-जन को सत्य, सरलता और सजगता की ओर प्रेरित करती है। उनका जीवन और उनके विचार आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं, विशेषकर जब समाज अनेक प्रकार के भेदभाव, आडंबर और अंधविश्वासों से जूझ रहा है! संत कबीर मानवतावादी विचारक थे। उन्होंने अपने दोहों और साखियों के माध्यम से समाज को धार्मिक पाखंड, जातिवाद और अंधविश्वास से उबारने का प्रयास किया। उनका संदेश था—“ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, आपके भीतर है। सच्ची भक्ति आत्मज्ञान और सत्य आचरण से ही संभव है! कबीर साहेब का जीवन, गूढ़ चिंतन और सत्य के प्रति निडरता आज की पीढ़ी को आत्ममंथन, सहिष्णुता और समभाव की दिशा में प्रेरित करता है। कबीर केवल इतिहास की विभूति नहीं, बल्कि वर्तमान की चेतना हैं—जो हमें सच्चा इंसान बनने की राह दिखाते हैं!

धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय की आवश्यकता

कबीर साहेब ने न तो हिन्दू पूजा-पद्धति को अंतिम सत्य माना, न ही मुसलमान तरीकों को। वे दोनों के बाह्य आडंबरों का विरोध करते हुए कहते हैं:

“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका छोड़ि दे, मन का मनका फेर॥”

धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता के दौर में संत कबीर का यह दृष्टिकोण एक साझा मानवीय धरातल तैयार करने में सहायक है।

जातिवाद और सामाजिक भेदभाव का विरोध

संत कबीर ने जन्म पर आधारित ऊंच -नीच को खारिज करते हुए कर्म और मानवता को प्राथमिकता दी:

 “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान”

जब समाज आज भी जातिगत भेदभाव और छुआछूत की ग्रंथि से मुक्त नहीं हो सका, कबीर की वाणी सामाजिक समानता की प्रेरणा है!

*आडंबर और पाखंड का खंडन*

संत कबीर ने पंडितों, मुल्लाओं और ढोंगी बाबाओं की पोल खोलते हुए सत्यान्वेषण की राह दिखाई:

“पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार॥”

संत कबीर ने इस्लाम मज़हब की कमजोरियों और मुल्लाओं की थोथी पूजा पद्धति पर व्यंग्य किया और आडंबरों पर प्रहार किया!

_रटंत पूजा-पद्धति की आलोचना:_

 “कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भया खुदाय”

_हज यात्रा पर तंज:_

> “कांशी काबा एक है, एकै राम रहीम।कहैं कबीर सोई पिये, प्रेम की जाको तासीर॥”

_बाह्य पूजा की निंदा:_

> “हज को गयां मुलां हुआ और मक्का में बसै खुदाय। कहैं कबीर राम रची राखा, को न पहुंचा जाय॥”

_कबीर साहेब ने मुल्ला, पंडित, पादरी —किसी को नहीं छोड़ा, यदि वह व्यक्ति ज्ञान के नाम पर केवल पाखंड फैला रहा था। उनका उद्देश्य आलोचना नहीं, जागरण था। वे धार्मिक परंपराओं के भीतर सत्य खोजने की बात करते हैं, न कि उन्हें अंधभक्ति से अपनाने की!_

आज का समाज भी बाह्य प्रदर्शन और आडंबर में उलझा हुआ है। कबीर का संदेश हमें सत्य की खोज में भीतर झांकने को कहता है।

*आत्मा की खोज और आत्म-जागरण*

संत कबीर का सबसे मूल संदेश यह था कि ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है। आत्मा की साधना ही सच्ची साधना है।

 “मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।”

मानसिक तनाव, असंतोष और अस्तित्व की उलझनों में फंसे आज के व्यक्ति को संत कबीर की यह दृष्टि आत्मचिंतन और शांति की राह दिखाती है।

*सरल, सच्चा और सत्य जीवन*

कबीर साहेब ने साधारण जन-जीवन में ईश्वर को उतार दिया। वे कहते हैं:

> “साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय॥”

_आज की उपभोक्तावादी जीवनशैली के बढ़ते प्रभाव में संत कबीर का यह विचार संतुलन, संतोष और साझा जीवन के मूल्यों को जागृत करता है!_

संत कबीर साहेब केवल एक आध्यात्मिक संत नहीं थे, वे एक सामाजिक क्रांतिकारी भी थे। उनका जीवन और वाणी आज भी सामाजिक सुधार, धर्मनिरपेक्षता, मानवता और आत्मबोध की दृष्टि से अत्यंत प्रेरणादायक है।

 

 

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