मुख्य न्यायाधीश पर जूता नहीं, संविधान पर प्रहार हुआ है, न्याय और समानता की आत्मा पर चोट है.

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मुख्य  न्यायाधीश पर जूता नहीं,  संविधान पर प्रहार हुआ है, न्याय और समानता की आत्मा पर चोट है.

भारत में हाल ही में एक अत्यंत शर्मनाक और चिंताजनक घटना सामने आई — देश के मुख्य न्यायाधीश श्री गवई के ऊपर न्यायालय के अंदर ही जूता फेंकने की कोशिश की गई। यह सिर्फ एक व्यक्ति पर हमला नहीं था, बल्कि भारत के संविधान, न्याय व्यवस्था और सामाजिक समानता की भावना पर सीधा प्रहार था।

इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह सवाल खड़ा हो गया है कि जब देश का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी, जो संविधान का संरक्षक है, असुरक्षित और अपमानित किया जा सकता है, तो एक आम नागरिक का क्या होगा?

क्या यह न्यायपालिका नहीं, संविधान पर हमला है?

लोगों का कहना है — यह हमला मुख्य न्यायाधीश पर नहीं, बल्कि भारत के संविधान पर जूता फेंकने जैसा है।

मुख्य न्यायाधीश श्री गवई का अपराध सिर्फ इतना है कि वे दलित समुदाय से आते हैं और उन्होंने न्याय के सर्वोच्च पद तक अपनी प्रतिभा, परिश्रम और ईमानदारी से पहुंच बनाई है।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है —

 क्या यही इस देश में “मनुवाद” की सोच का असली चेहरा है?

दलित और पिछड़े तबकों पर लगातार हमले क्यों?

देश में आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जो एक गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर करती हैं।

कभी दलित के चेहरे पर पेशाब किया जाता है, कभी पेशाब से “शुद्धिकरण” करने की बातें होती हैं, कभी किसी को घेर कर पीट दिया जाता है, और अब न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति तक को अपमानित किया जा रहा है।

इन घटनाओं में एक समानता है —

हमेशा निशाना बनाया जाता है दलित, पिछड़े और वंचित समाज को।

अगर गवई साहब की जगह कोई “मिश्रा” या “खन्ना” होते तो क्या तब भी यही चुप्पी रहती?

यह सवाल आज हर जागरूक नागरिक के मन में है।

क्या देश का मीडिया, राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी वर्ग इतना ही शांत रहता अगर यह हमला किसी सवर्ण न्यायाधीश पर होता?

यह चुप्पी दोहरी मानसिकता को दर्शाती है — एक तरफ “समाज में समानता” की बातें की जाती हैं, दूसरी तरफ व्यवहार में जातिगत भेदभाव की जड़ें अब भी मजबूत हैं।

संविधान की भावना को चुनौती देने वाले इशारे

यह घटना कोई पहली नहीं है।

जब मुख्य न्यायाधीश गवई ने अपने गृह राज्य महाराष्ट्र का दौरा किया था, तो प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें स्वागत करने के लिए राज्य के शीर्ष अधिकारियों को उपस्थित रहना चाहिए था।

परन्तु वे नहीं आए —

क्यों?

क्योंकि मुख्य न्यायाधीश एक दलित समुदाय से हैं।

इसी तरह, जब भारत के राष्ट्रपति, जो स्वयं एक दलित महिला हैं,

राम मंदिर के शिलान्यास

संसद भवन के भूमिपूजन

संसद उद्घाटन समारोह

से दूर रखी गईं,

तो यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर संविधानिक पदों पर बैठे दलित प्रतिनिधियों को सम्मान से क्यों वंचित किया जा रहा है?

ये देश को किस दिशा में ले जाया जा रहा है?

यह सब घटनाएं हमें चेतावनी देती हैं कि भारत की लोकतांत्रिक और समानतामूलक नींव को धीरे-धीरे मनुवादी सोच खोखला कर रही है।

संविधान ने हमें “हम भारत के लोग” के नाम पर जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का वादा दिया था, उसे तोड़ा जा रहा है।

अगर आज समाज चुप रहा, तो कल यह जूता हर उस व्यक्ति पर फेंका जाएगा जो समानता की बात करेगा, अन्याय के खिलाफ खड़ा होगा।

आवश्यक है एकजुट प्रतिरोध

अब वक्त आ गया है कि देश का हर नागरिक — चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग से हो —

संविधान के सम्मान और सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए खड़ा हो।

क्योंकि अगर न्यायपालिका की गरिमा नहीं बचेगी, तो जनता का विश्वास भी खत्म हो जाएगा।

यह सिर्फ एक न्यायाधीश का नहीं, भारत के भविष्य का सवाल है।

लेखक – विजय पटेल

( संवैधानिक मूल्यों के पक्षधर)

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