
वक़्फ़ की जायदादें और हमारी बेपरवाही का आईना
*||वक़्फ़ की जायदादें और हमारी बेपरवाही का आईना||*
मोहम्मद उवैस रहमानी
भोपाल/मध्य प्रदेश
ज़माना बदल गया है,मगर अफ़सोस कि इंसानों के दिल नहीं बदले।आज जब हम उम्मत-ए-मुस्लिमां की सामूहिक हालत पर नज़र डालते हैं तो एक कहावत अनायास ज़ुबान पर आ जाती है —
*“माल ए मुफ़्त, दिल बे-रहम!”*
वो दौर याद कीजिए जब हमारे बुज़ुर्गों ने अपनी ज़िन्दगी की कमाई,ज़मीनें,कारोबार,और जायदादें अल्लाह की राह में और उम्मत की भलाई के लिए वक़्फ़ कर दीं। उन्हें उम्मीद थी कि आने वाली नस्लें इन अमानतों की हिफ़ाज़त करेंगी,इनसे मस्जिदें, मदरसे,यतीमखाने, ख़ानका,और अस्पताल आबाद होंगे। मगर अफ़सोस,उनकी यह उम्मीद *हक़ीक़त से कोसों दूर निकली।*
आज वक़्फ़ की ज़मीनें कारोबारी लालच की मंडी बन चुकी हैं। वो जायदादें,जो कभी दीन और इंसानियत की सेवा के लिए थीं, अब निजी फ़ायदे और *सियासी खेलों का हिस्सा* बन गई हैं।
वक़्फ़ बोर्डों के पास न तो स्कूल बनाने का बजट है,न अस्पताल, और न ही इन जायदादों के चारों ओर एक मज़बूत दीवार खड़ी करने की कुव्वत।
जो पूंजी उम्मत की फ़लाह के लिए थी, वो रिश्वत,सियासत और *बेइमानी की नज़र हो चुकी है।*
सबसे बड़ा दुख तो यह है कि इन अमानतों को लूटने वाले कोई गैर नहीं — बल्कि हम ख़ुद हैं।
*अल्लाह तआला ने क़ुरआन में फ़रमाया:*
> إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُكُمْ أَنْ تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَىٰ أَهْلِهَا
निश्चित रूप से अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि तुम अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचाओ।
लेकीन अफ़सोस, हमने अमानत को ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि मौक़ा समझ लिया।
वक़्फ़ की ज़मीनों पर कब्ज़े, फ़ाइलों में हेराफ़ेरी, और झूठी लीज़ें — यह सब उसी ज़वाल (पतन) की निशानियाँ हैं जिसकी खबर नबी-ए-करीम ﷺ ने दी थी:
जब अमानत ज़ाया कर दी जाए, तो क़यामत का इंतज़ार करो। (बुख़ारी)
आज वक़्त है कि हम अपने गिरेबान में झाँकें।
*वक़्फ़ कोई मामूली मामला नहीं* — यह उम्मत की सामूहिक अमानत है।
इसकी हिफ़ाज़त और पारदर्शी इस्तेमाल हर मुसलमान की दिनी और नैतिक ज़िम्मेदारी है।
हमें समझना होगा कि ज़कात और सदक़ा अस्थायी राहत देते हैं,
लेकिन वक़्फ़ एक पायेदार प्रणाली है — जो नस्लों तक फ़लाह का सिलसिला जारी रखती है।
*जरूरत है कि* :वक़्फ़ की तमाम जायदादों का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार किया जाए,
नाजायज़ कब्ज़ों का ख़ात्मा हो,
पारदर्शी वक़्फ़ बोर्ड और अवामी निगरानी तंत्र बनाया जाए,
और वक़्फ़ की आमदनी को उसके असली मक़सद — तालीम, सेहत और समाजी फ़लाह — पर खर्च किया जाए।
अंत में बस यही *सवाल हर मुसलमान को* खुद से करना चाहिए:
क्या हम अपने असलाफ़ की छोड़ी अमानत के हक़दार हैं?
या फिर हम भी बन चुके हैं उस दर्दनाक हक़ीक़त का हिस्सा —
“माल ए मुफ़्त, दिल बे-रहम!”
*मोहम्मद उवैस रहमानी*
प्रधान संपादक
RH NEWS 24&अख़बार रुखसार ए हिन्द
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